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चेचक

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यह मनुष्य तीव्र रक्तश्राव वाली चेचक से पीडित है।

चेचक (शीतला, बड़ी माता, स्मालपोक्स) एक विषाणु जनित रोग है। श्वासशोथ एक संक्रामक बीमारी थी, जो दो वायरस प्रकारों, व्हेरोला प्रमुख और व्हेरोला नाबालिग के कारण होती है। इस रोग को लैटिन नाम व्हेरोला या व्हेरोला वेरा द्वारा भी जाना जाता है, जो व्युत्पन्न ("स्पॉटेड") या वार्स ("पिंपल") से प्राप्त होता है। मूल रूप से अंग्रेजी में "पॉक्स" या "लाल प्लेग" के रूप में जाना जाता है; 15 वीं शताब्दी में "श्वेतपोक्स" शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले "महान पॉक्स" (सीफीलिस)। चेकोपॉक्स के अंतिम स्वाभाविक रूप से होने वाले मामले (वेरियोला नाबालिग) का निदान २६ अक्टूबर १९७७ को हुआ था। [1] चेचक के साथ संक्रमण प्रसारित होने से पहले त्वचा के छोटे रक्त वाहिकाओं और मुंह और गले में केंद्रित है। त्वचा में यह एक विशिष्ट दाने का परिणाम है और, बाद में, तरल पदार्थ से भरा छाले उठाया। वी। प्रमुख ने एक और अधिक गंभीर बीमारी का उत्पादन किया और ३०-३५ प्रतिशत की एक समग्र मृत्यु दर थी। वी। नाबालिग एक मामूली बीमारी का कारण बनता है (जिसे अल्स्ट्रिम भी कहा जाता है) जो उन लोगों के बारे में प्रतिशत मार डाला, जो इसे संक्रमित करते हैं। वीकी लंबी अवधि की जटिलताओं में प्रमुख संक्रमण, आम तौर पर चेहरे पर होता है, जो कि ६५-८५ प्रतिशत जीवित बचे हुए होते हैं। कॉर्नियल अल्सरेशन और स्कायरिंग, और गठिया और ऑस्टियोमाइलाइटिस के कारण अंग विकृति से उत्पन्न होने वाली अंधापन कम आम जटिलताओं थे, जिन्हें लगभग २-५ प्रतिशत मामलों में देखा गया था। माना जाता है कि स्मोप्क्स को मनुष्यों द्वारा मूल रूप से १६,००० से ६८,००० साल पहले एक भू-स्तरीय अफ्रीकी कृन्तक से झूनूस के रूप में कृषि और सभ्यता की शुरुआत से पहले अधिग्रहण कर लिया गया था। इसका सबसे प्रारंभिक भौतिक प्रमाण संभवतः मिस्र के फिरौन रामसेस वी के शवों पर पस्तुलर दाने वाला है। १८ वीं शताब्दी के समापन वर्ष (पांच राजशाही समेत समेत) के दौरान बीमारी ने लगभग ४००,००० यूरोपियनों को मार दिया, और सभी अंधापनों के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार था। संक्रमित लोगों में से २०-६० प्रतिशत-और ८० प्रतिशत संक्रमित बच्चों-इस बीमारी से मृत्यु हो गई। २० वीं शताब्दी के दौरान लगभग ३००-५०० मिलियन लोगों की मौत के लिए चेम्प्क्स जिम्मेदार था। हाल ही में १९६७ में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अनुमान लगाया कि १५ मिलियन लोगों ने इस बीमारी का अनुबंध किया और उस वर्ष 20 लाख लोगों की मृत्यु हुई। १९वीं और २० वीं शताब्दी के दौरान टीकाकरण अभियानों के बाद, डब्लूएचओ ने १९८० में शीतल के वैश्विक उन्मूलन को प्रमाणित किया। श्वासशोथ को दो संक्रामक बीमारियों में से एक है, जिसे नष्ट कर दिया गया है, और दूसरी चीज है जो २०११ में समाप्त हो गई थी।

यह रोग अत्यंत प्राचीन है। आयुर्वेद के ग्रंथों में इसका वर्णन मिलता है। मिस्र में १,२०० वर्ष ईसा पूर्व की एक ममी (mummy) पाई गई थी, जिसकी त्वचा पर चेचक के समान विस्फोट उपस्थित थे। विद्वानों ने उसका चेचेक माना। चीन में भी ईसा के कई शताब्दी पूर्व इस रोग का वर्णन पाया जाता है। छठी शताब्दी में यह रोग यूरोप में पहुँचा और १६वीं शताब्दी में स्पेन निवासियों द्वारा अमरीका में पहुँचाया गया। सन्‌ १७१८ में यूरोप में लेडी मेरी वोर्टले मौंटाग्यू ने पहली बार इसकी सुई (inoculation) प्रचलित की और सन्‌ १७९६ में जेनर ने इसके टीके का आविष्कार किया। चेचक विषाणु जनित रोग है, इसका प्रसार केवल मनुष्यों में होता है, इसके लिए दो विषाणु उत्तरदायी माने जाते है वायरोला मेजर और वायरोला माइनर [१] .[2] इस रोग के विषाणु त्वचा की लघु रक्त वाहिका, मुंह, गले में असर दिखाते है, मेजर विषाणु ज्यादा मारक होता है, इसकी म्रत्यु दर ३०-३५% रहती है, इसके चलते ही चेहरे पर दाग, अंधापन जैसी समस्या पैदा होती रही है, माइनर विषाणु से मौत बहुत कम होती है‌।


यह रोग अत्यंत संक्रामक है। जब तब रोग की महामारी फैला करती है। कोई भी जाति और आयु इससे नहीं बची है। टीके के आविष्कार से पूर्व इस रोग से बहुत अधिक मृत्यु होती थी, यह रोग दस हजार इसा पूर्व से मानव जाति को पीड़ित कर रहा है, १८ वी सदी में हर साल युरोप में ही इस से ४ लाख लोग मरते थे, यह १/३ अंधेपन के मामले हेतु भी उत्तरदायी था, कुल संक्रमण में से २०-६०% तथा बच्चो में ८०% की म्रत्यु दर होती थी|बीसवी सदी में भी इस से ३० से ५० करोड़ मौते हुई मानी गयी है, १९५० के शुरू में ही इसके ५ करोड़ मामले होते थे, १९७९ में भी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसके चलते प्रति वर्ष विश्व भर में २० लाख मौते होनी मानी थी, पूरी १९ वी तथा २० वी सदी में चले टीकाकरण अभियानों के चलते दिसम्बर १९७९ में इस रोग का पूर्ण उन्मूलन हुआ, आज तक के इतिहास में केवल यही ऐसा संक्रामक रोग है जिसका पूर्ण उन्मूलन हुआ है ।

चेचक का एलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी द्वारा लिया गया चित्र

रोग का कारण एक वाइरस होता है, जो रोगी के नासिकास्राव और थूक तथा त्वचा से पृथम्‌ होनेवाले खुंरडों में रहता है और बिंदुसंक्रमण द्वारा फैलता है। खुरंड भी चूर्णित होकर वस्त्रों या अन्य वस्तुओं द्वारा रोग फैलने का कारण होते हैं। यह वाइरस भी दो प्रकार का होता है। एक उग्र (major), जो उग्र रोग उत्पन्न करता है, दूसरा मृदु (minor), जिससे मृदुरूप का रोग होता है। गायों में रोग (cow-pox) उत्पन्न करनेवाला वाइरस प्रायः मनुष्य को आक्रांत नहीं करता और न वह एक व्यक्ति से दूसरे में पहुँचता है।

रोग का उद्भवकाल दो सप्ताह का कहा जाता है, किंतु इससे कम का भी हो सकता है। प्रारंभिक लक्षण जी मिचलाना, सिर दर्द, पीठ में तथा विशेषकर त्रिक प्रांत में पीड़ा, शरीर में ऐंठन, ज्वर, गलशोथ, खाँसी, गला बैठ जाना तथा नाक बहना होते हैं, जो दो तीन दिन तक रहते हैं। तदनंतर चर्म पर पित्ती के समान चकत्ते निकल आते हैं। मुँह में, गले में तथा स्वरयंत्र तक छोटी-छोटी स्फोटिकाएँ (vesicles) बन जाती है, जो आगे चलकर व्रणों में परिणत हो जाती हैं।

तीसरे या चौथे और कभी-कभी दूसरे ही दिन चेचक का विशेष झलका (rash) दिखाई देता है। इसकी स्थिति और प्रकट होने का क्रम रोग की विशेषता है। छोटे-छोटे लाल रंग के धब्बे (macules) पहले ललाट और कलाई पर प्रगट होते हैं, फिर क्रमशः बाहु, धड़, पीठ और अंत में टाँगों पर निकलते हैं। इनकी संख्या ललाट और चेहरे पर तथा अग्रबाहु और हाथों पर, तथा इनमें भी प्रसारक पेशियों की त्वचा पर, अधिक होती है। बाहु, छाती का ऊपरी भाग तथा कुहनी के मोड़ के सामने के भाग इनसे बहुत कुछ बच जाते हैं। कक्ष (axilla) में तो निकलते ही नहीं।

इन विवर्ण धब्बों में भी निश्चित्त क्रम में परिवर्तन होते हैं। कुछ घंटों में इन धब्बों से पिटिकाएँ (papules) बन जाती हैं, जो सूक्ष्म अंकुरों के समान होती हैं। दो तीन दिन तक ये पिटिकाएँ निकलती रहती हैं, तब ये स्फोटिका (vesicles) में परिवर्तित होने लगती हैं। जो पिटिका पहिले निकलती है, वह पहले स्फोटिका बनती है। लगभग २४ घंटे में सब स्फोटिकाएँ बन जाती हैं। प्रत्येक स्फोटिका उभरे हुए दाने के समान होती हैं, जिसमें स्वच्छ द्रव भरा होता है। दो-तीन दिन में यह द्रव पूययुक्त हो जाता है और पूयस्फोटिका (pustule) बन जाती है, जिसके चारों ओर त्वचा में शोथ का लाल घेरा बन जाता है। इस समय वह ज्वर, जो कम हो जाता अथवा उतर जाता है, फिर से बढ़ जाता है। अगले आठ या नौ दिनों में पूयस्फीटिकाएँ सूखने लगती हैं और गहरे भूरे अथव काले रंग के खुरंड बन जाते हैं, जो त्वचा से पूर्णतया पृथक होने में १०-१२ या इससे भी अधिक दिन ले लेते हैं।

पिटिका और स्फोटिका अवस्था में रोगी की दशा कष्टदायी नहीं होती, किंतु पूयस्फोटिकाओं के बनने पर ज्वर के बढ़ने के साथ ही उसकी दशा भी उग्र और कष्टदायी हो जाती है। चर्म में स्टेफिलो या स्ट्रिप्टो कोकाई के प्रवेश से स्फीटिकाओं में पूय बनने के साथ त्वचा में शोथ हो जाता है और मुँह, गले, स्वरंयंत्र आदि में व्रण बन जाते हैं। निमोनिया भी हो सकता है।

रोग के रूप

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रोग के तीनों रूपों को जानना आवश्यक है। (१) विरल (discrete) रूप में स्फोटिकाएँ थोड़ी तथा दूर-दूर होती हैं। इस कारण त्वचा पर शोथ अधिक नहीं होता। (२) दूसरे रूप में स्फोटिकाएँ बड़े आकार की और पास-पास होती हैं। बढ़ने पर वे आपस में मिल जाती हैं, जिससे चेहरा या त्वचा के अन्य भाग बड़े-बड़े फफोलों से ढँक जाते हैं। बहुत शोथ होता है, सारा चेहरा सूजा हुआ दिखाई पड़ता है और नेत्र तक नहीं खुल पाते। यह सम्मेलक (confluent) रूप होता है। इसमें अधिक मृत्यु होती हैं। (३) तीसरा रक्श्रावक (Haemorrhagic) रूप है। नेत्र, मुँह, मूत्राशय, आत्र, नासिका आदि से रक्तश्राव होता है, जो मल, मूत्र, थूक, आदि द्वारा बाहर आता है। नेत्र के श्र्वेत भाग में रक्त एकत्र हो जाता है। यह रूप सदा घात होता है। प्रायः रोगी की मृत्यु हो जाती है।

सामान्य प्रकार की चेचक के कारण उत्पन्न झलकों को दिखाता हुआ बच्चा

चिकित्सा

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रोग की कोई औषधि नहीं है। पूयोत्पादन की दशा में पेनिसिलिन का प्रयोग लाभकारी होता है। अन्य प्रतिजीवाणुओं का उपयोग भी पूयोत्पादक तृणाणुवों के विषैले प्रभाव को मिटाने के लिए किया जाता है। उत्तम उपचार रोगी के स्वास्थ्य लाभ के लिए आवश्यक है।

निरोधक उपाय

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रोग टीका रोग को रोकने का विशिष्ट उपाय है। जिस वस्तु का टीका लगया जाता है, वह इस रोग की वैक्सीन होती है, जिसको साधारण बोलचाल में लिंफ कहते हैं। यह बछड़ों में चेचक (cow pox) उत्पन्न करके उनमें हुई स्फोटिकाओं के पीव से तैयार किया जाता है। टीका देते समय शुद्ध की हुई त्वचा पर, स्वच्छ यंत्र से खुरचकर, लिंफ की एक बूँद फैलाकर यंत्र के हैंडिल से मल दी जाती है। इससे रोगक्षमता उत्पन्न होकर रोग से रक्षा होती है। यह टीका वैक्सिनेशन कहलाता है और शिशु को प्रथम मास में लगाया जा सकता है। तीसरे मास तक शिशु को अवश्य लगवा देना चाहिए। स्कूल में बालक को भेजने के समय फिर लगवाना चाहिए। ८ से १० वर्ष की आयु में एक बार फिर लगवा देने से जीवनपर्यंत रोग के प्रतिरोध की क्षमता बनी रहती है। रोग की महामारी के दिनों में टीका लगवा लेना उत्तम है।इसे बड़ी माता भी कहते है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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इतिहास में चेचक

सन्दर्भ

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  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 17 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 मई 2017.
  2. Ryan KJ, Ray CG (editors) (2004). Sherris Medical Microbiology (4th ed. संस्करण). McGraw Hill. पपृ॰ 525–8. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0838585299.सीएस1 रखरखाव: फालतू पाठ: authors list (link) सीएस1 रखरखाव: फालतू पाठ (link)