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हैलीना ब्लावाट्स्की

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मादाम हैलीना ब्लावाट्स्की

हैलीना ब्लावाट्स्की (Helena Petrovna Blavatsky ; रूसी : Елена Петровна Блаватская, यूक्रेनी : Олена Петрівна Блаватська ; मूल नाम : हैलीना पैट्रोवना ; १८३१ -- १८९१), एक रूसी लेखिका और थियोसोफी तथा थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापिका थीं। उनके विचारों का एशिया और यूरोप पर गहरा प्रभाव पड़ा। ब्लावट्स्की ने भारतीयों को अपने धर्म के मूल को जानने समझने तथा उसका आदर करने के लिये प्रेरित किया।[1] इसके साथ ही थियोस्फिकल सोसायटी ने भारत ने भारत में राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ाने में सहायता की।

हेलेना ब्लावट्स्की, १८५० ई में

हैलीना पैट्रोवना का जन्म येकाटेरिनोस्लाव में रूसी-जर्मन मूल के एक सम्पन्न परिवार में 12 अगस्त 1831 को हुआ था। यह स्थान उस समय रूसी साम्राज्य के अन्तर्गत था जो आजकल यूक्रेन का भाग है। उनके पिता कर्नल पीटर वानहाःन रूसी फौज के एक प्रतिष्ठित उच्चाधिकारी थे। उनकी मां सुविख्यात उपन्यासकार हैलीना आंद्रेयेवना थीं, जो उन्हें 11 वर्ष की आयु में छोड़ कर दिवंगत हो गई थीं। इसलिए वे बचपन में अपने नाना प्रिवी काउंसिलर आद्रे-डि-फादेयेव तथा नानी राजकुमारी हैलीना पावलोवना डोलगोरुकोव की देखरेख में पली थीं। सारतोव व तिफ्लिस (काकेशस) में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही उनकी मनःशक्तियां एवं पारलौकिक ज्ञान अद्भुत ढंग से विकसित होने लगे थे।

अपने बचपन में ही उन्होंने रूसी साम्राज्य के विभिन्न भागों का भ्रमण किया था। उन्होंने स्वयं अध्ययन द्वारा अधिकांश ज्ञान प्राप्त किया था। अपने किशोरावस्था में ही वे पश्चिमी आध्यात्मिकता में उनकी रुचि जागी। १८४९ में उन्होंने विश्व के अनेक भगों का भ्रमण किया जिसमें यूरोप, अमेरिका और भारत सम्मिलित हैं। उनके अनुसार, इसी समय उनकी भेंट 'प्राचीन ज्ञान के कुछ पण्डितों' से हुई जिन्होंने उन्हें तिब्बत के शिगात्से जाने की सलाह दी। यहाँ जाकर उन्होंने धर्म, दर्शन और विज्ञान की अच्छी समझ विकसित की तथा इनका संश्लेषण किया।

1849 में उन्होंने अपने से काफी बड़ी आयु के सरकारी उच्चाधिकारी निकिफोर ब्लावाट्स्की से 18 वर्ष की ही आयु में विवाह कर लिया था किंतु वासनामय विलासितापूर्ण दाम्पत्य जीवन उन्हें रास नहीं आया। हर समय आध्यात्मिक चिन्तन एवं ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों के बारे में मनन-चिन्तन करने वाली किशोरी हैलीना पैट्रोना विवाह के तुरन्त बाद ही पति को हमेशा के लिए छोड़ कर पिता के घर लौट गईं। पुत्री द्वारा जल्दीबाजी में किए गए विवाह और उसके तुरंत बाद पति से संबंध-विच्छेद उन्हें अच्छा नहीं लगा। लेकिन जो हो गया उसे मानने के लिए वे मजबूर थे। अपनी मातृविहीना पुत्री को वे बहुत प्यार करते थे और उसे खुश रखते थे। पुत्री ने जब यह इच्छा व्यक्त की कि अब वह कभी दुबारा विवाह बंधन में नहीं पड़ेगी। अब वह अपने मनोनुकूल अध्यात्म चिंतन व अपने में ब्रह्मज्ञान का विकास करेगी। और ब्रह्मांड के अव्यक्त गूढ़ रहस्यों की खोज व अध्ययन करेगी, तब पिता को उसे अनुमति देनी ही पडी। आर्थिक समस्या उनकी पुत्री के आगे थी नहीं क्योंकि पिता की इकलौती पुत्री होने के नाते पिता की संपत्ति उसके लिए यथेष्ट थी जिससे वह आजीवन अपना निर्वाह कर सकती थीं।

मैडम ब्लावाट्स्की के उत्कृष्ट चरित्र के बारे में लक्ष्य करने योग्य एक बात यह है कि उन्होंने विवाह को केवल वासनापूर्ति का साधन न मान कर किसी ऊंचे उद्देश्य की पूर्ति के लिए पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे का सहयोगी बनना, माना था। विवाह करके उन्होंने देखा कि ‘ब्रह्मज्ञान के अर्जन तथा ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों का उद्धाटन करने और संसार में विश्व- बंधुत्व कायम करने के उनके उद्देश्यों को उनके पति ब्लावाट्स्की कोई महत्त्व नहीं देते।

वे पत्नी को केवल वासनापूर्ति का साधन एवं अपनी विलासितापूर्ण जीवन में साथी मानते हैं।’ इसलिए हैलीना विवाह के तुरंत बाद पति से अलग हो गईं, किंतु उन्होंने अपने नाम के साथ पति का नाम अपने जीवन की अंतिम घड़ी तक बरकरार रखा क्योंकि उन्होंने अपना दूसरा विवाह करने के उद्देश्य से अपने पति से संबंध विच्छेद नहीं किया था। एक बार जो पति बन गया, कोई संबंध न रहने पर भी, वह उनका पति बना रहा।

भारत में अंतर्राष्ट्रीय थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्यालय स्थापित करके हम भारतीयों को गौरवान्वित करने वाली मैडम ब्लावाट्स्की अधिक दिन भारत में नहीं रहीं। अपने विश्व भ्रमण के दौरान 1852 में वे पहली बार भारत आई थीं और यहां थोड़े दिन रुक कर इसकी ऋषि परम्परा वाले ब्रह्मज्ञान की संपन्नता से अवगत हो कर लौट गई थीं।

1855 के दिसंबर में, जापान से वापसी पर 1855 से 1857 के मध्य उन्होंने दुबारा भारत आकर अधिक समय तक पूरे देश का भ्रमण करके यहां की आध्यात्मिक ऊंचाइयों एवं धर्मग्रंथों के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। तीसरी बार 1868 में वे 37 वर्ष की परिपक्व आयु में भारत व तिब्बत की यात्रा पर आईं तो कुछ दिन यहां के विद्वानों से विचारों का आदान-प्रदान एवं अध्ययन द्वारा भारत के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कीं। फिर यहां से तिब्बत चली गईं।

8 सितंबर 1875 को न्यूयार्क (अमेरिका) में थियोसॉफिकल सोसाइटी का गठन करने के बाद वे 1878 के अंत में चौथी बार भारत आई तो अपने सहयोगी कर्नल ऑलकॉट के साथ बंबई में सोसाइटी का कार्यालय स्थापित कर उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘द थियोसॉफिट’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। 19 दिंसबर, 1882 में उन्होंने थियोसॉफिकल सोसाइटी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय मद्रास (चेन्नई) के अड्यार क्षेत्र में स्थानांतरित किया। उसके बाद सोसाइटी का व्यापक प्रचार-प्रसार शुरू हो गया और देश के विभिन्न स्थानों में उसकी शाखाएं खोली गईं। 32 वर्षों तक सारे विश्व का भ्रमण करके उन्होंने भारत को ही थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्य केंद्र बनाने के लिए अपने मनोनुकूल उपयुक्त पाया। यह उनके द्वारा भारत के मूल्यांकन एवं भारत के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति का एक ज्वलंत प्रमाण है। एक विश्वव्यापी संगठन बनाने के लिए सारे विश्व का भ्रमण परम आवश्यक होने के कारण उन्होंने भारत में अधिक समय तक न रहकर 32 वर्ष विश्व भ्रमण में बिताया था। फिर भी कुल मिलाकर वे लगभग 10 वर्ष भारत में रहीं।

मादाम ब्लावाट्स्की की निजी मुहर
भारतीय थियोसोफिस्टों के साथ हेलेना (सन १८८४ ई)

मैडम ब्लावाट्स्की ने 20 फ़रवरी 1884 को कर्नल ऑलकॉट के साथ सोसाइटी के प्रचार-प्रसार हेतु यूरोप गईं। वहां के कई देशों में काम करने के बाद वे लंदन पहुंची और वहां से 1884 के अक्टूबर में रवाना हो कर 21 दिसम्बर को अड्यार लौट आईं। 1885 के आरंभ में वे बहुत बीमार हो गईं। फरवरी में उन्हें यूरोप में इलाज कराने तथा वहां काम करने के लिए भारत से प्रस्थान करना पड़ा। यह उनकी भारत से अंतिम विदाई थी। यूरोप में थियोसॉफिकल सोसाइटी का काम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लंदन को अपना अंतिम पड़ाव बनाया।

वहां ‘ब्लावाट्स्की लॉज’ नाम से अपना आवास बना कर, 1857 के सितंबर से उन्होंने अपना दूसरा मासिक पत्र ‘लूसिफर’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। 1888 में ‘दि सीक्रेट डॉक्टिन’ नामक उनका 1500 पृष्ठों का ग्रंथ लंदन से प्रकाशित हुआ। 1889 में उन्होंने ‘द वॉइस ऑफ साइलेंस’ तथा ‘दि की टु थियोसॉफी’ नामक दो पुस्तकें प्रकाशित कीं। उस अवधि में सोसाइटी के प्रचार-प्रसार का काम निरंतर चलता रहा।

8 मई 1891 को मैडम हैलीना ब्लावाट्स्की ने लंदन में अंतिम सांस लीं। अपने निधन से पहले उन्होंने सोसाइटी के यूरोप मुख्यालय की स्थापना 1890 में ही 19 एवेन्यू रोड, लंदन में कर दी थी और अपने गूढ़ विद्या का एक विचार केंद्र ‘इसोटरिक स्कूल’ नाम से 1888 में ही चालू कर दिया था। उनके शिष्यों का कहना है कि उनकी महान आत्मा ने अपने जीर्ण शरीर को छोड़ कर युवा दलाई लामा की देह में प्रवेश किया।

पुस्तकें

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  • Isis Unveiled: A Master-Key to the Mysteries of Ancient and Modern Science and Theology (1877)
  • From the Caves and Jungles of Hindostan (1879–1886)
  • The Secret Doctrine: The Synthesis of Science, Religion and Philosophy (1888)
  • The Voice of the Silence (1889)
  • The Key to Theosophy (1889)
  • Nightmare Tales (1907)

सन्दर्भ

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  1. Meade, Marion (1980). Madame Blavatsky: The Woman Behind the Myth. New York: Putnam. ISBN 978-0-399-12376-4.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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