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सूरदास

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सूरदास ( संस्कृत जाने जाते थे। वह कृष्ण के वैष्णव भक्त थे, और वह एक श्रद्धेय कवि और गायक भी थे।[1]

श्री कृष्ण और सूरदास जी

जीवन परिचय

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सूरदास जी के जन्म के विषय मैं प्रामाणिक रूप से जानकारी का घोर अभाव है। महाकवि सूरदास का जन्म 1478 ई के आसपास मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित “रुनकता” नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में सारस्वत (जिसका अर्थ है ब्रमभट्ट राव) परिवार में हुआ था।[2][3]

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में मतभेद

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सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख॥

इसका अर्थ संवत् 1607 ईस्वी में माना गया है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् 1607 वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूरदास के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।

सूरदास का जन्म सं० 1540 ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि वल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् 1620 से 1648 ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है।

श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।

सूरदास की आयु "सूरसारावली' के अनुसार उस समय 67 वर्ष थी। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत सारस्वत ( जिसका अर्थ है ब्रमभट्ट राव ) थे और जन्म के अंधे थे। आइने अकबरी में (संवत् 1653 ईस्वी) तथा "मुतखबुत-तवारीख" के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।

अष्टछाप के कवि का नाम :

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सूरदास श्रीनाथ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला", श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता" आदि ग्रंथों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।

[श्यामसुन्दर दास] ने इस सम्बन्ध में लिखा है - "सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।" डॉक्टर [हजारीप्रसाद द्विवेदी] ने लिखा है - "सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए."

सूरदास द्वारा रचित हिंदी ग्रंथ

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सुरसागर, सुरसरावली, साहित्य लहरी, ब्याहलो, नल दमयंती आदि। सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:

  • (1) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
  • (2) सूरसारावली
  • (3) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
  • (4) नल-दमयन्ती
  • (5) ब्याहलो

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रंथों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसरावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।

साहित्य लहरी, सूरसागर, सूर की सारावली।
श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।।

सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ

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  • 1. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है।
  • 2. सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।

सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।

  • 3. जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।
  • 4. सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
  • 5. सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से आगे बढ़ जाती है-
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।
  • 6. सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं।
  • 7. प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है
  • 8. सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।
  • 9. सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।
  • 10. सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।
  • 11. सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।
  • 12. सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
  • 13सूरदास रूपक प्रधान चिन्तन के सहारे ही अलंकारों का प्रयोग करते हैं और बिम्ब, प्रतीक, अन्योक्ति आदि की रचना भी करते हैं। इस पद्धति से काव्य-भाषा में वाग्विदग्धता, उपचार वक्रता और अभिव्यक्ति के सौन्दर्य का विकास हुआ है।'' सूर की काव्य-भाषा में अपने युग के सामाजिक सरोकार की छाया है, तो उस पर विचार और दर्शन का भी प्रभाव है।
  • 14
  • सूर का काव्य भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है, कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है-
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।

सन्दर्भ

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  1. आचार्य रामचंद्र, शुक्ल (1929). हिन्दी साहित्य का इतिहास. काशी: उमर प्रचारिणी सभा. पृ॰ १५९.
  2. "क्या रामदास सारस्वत थे कृष्ण भक्त सूरदास जी के पिता?". Punjabkesari. 2021-06-13. अभिगमन तिथि 2021-06-14.
  3. "सूरदास भगवान कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे।". पंजाब केसरी.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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