गर्भ
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]गर्भ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. पेट के अंदर का बच्चा । हमल । जैसे— उसे तीन महीने का गर्भ है । उ॰—चलत दसानन डोलति अवनी । गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ।—तुलसी (शब्द॰) । विशेष—स्त्री के रज और पुरुष के वीर्य के संयोग से गर्भ की स्थिति होती है । हारीत के मत से प्रथम दिन शुक्र और शोणित के संयोग से जिस सूक्ष्म पिंड की सृष्टि होती है, उसे कलल कहते हैं । दस दिन में यह कलल बबूलों के रूप में होता है । एक महीने में सूक्ष्य रूप में पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति और पंचभूतों की प्राप्ति होती है । तीसरे महीने हाथ पैर निकलते हैं और साढे़ तीन महीने पर सिर या मस्तक उत्पन्न होता है और उसकी भीतरी बनावट पूरी होती है । चौथे महीने में रोएँ निकलते हैं । पाँचवें महीने जीव का सचार होता है । छठे महीने में बच्चा । हिलने डोलने लगता है । दसवें या अधिक से अधिक ग्यारहवें महीने में बच्चे का जन्म होता है । इसी प्रकार सुश्रूत ने पहले मस्तक, फिर ग्रीवा, फिर दोनों पार्श्व और फिर पीठ का होना लिखा है । सुश्रूत ने वक्षस्थल के अंदर कमल के आकार का हृदय मान ा है और उसे जीवात्मा या चेतना शक्ति का स्थान कहा है । कन्या और पुत्र के भेद के विषय में भावप्रकाश आदि ग्रंथों में लिखा है कि जब गर्भ में शुक्र की प्रबलता होता है, तब पुत्र और जब रज की प्रबलता होती है, तब कन्या होती है । आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों के मत से रज और शुक्र के संयोग से गर्भ की स्थिति और बच्चे का जन्म होता है । पर उनके मत से अंडकेश के दाहिने भाग में ऐसे पदार्थ की स्थिति रहती है जिसमें पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति होती है, और बाएँ भाग में कन्या उत्पन्न करने की शक्तिवाला पदार्थ रहता है । गर्भाधान के समय गर्भाशय में जिस पदार्थ की अधिकता हो जाती है, उसी के अनुसार कन्या या पुत्र की सृष्टि हिती है । इसी सिद्धांत के बल पर वे कहते हैं कि मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार पुत्र या कन्या उत्पन्न करने में समर्थ हो सकता है । पाश्चात्य खोज इस विषय में बहुत आगे बढ़ी हुई है । पुरुष वीर्य के एक बूँद में सूत के से लंबे सूक्ष्म विर्याणु रहते हैं, जो सूक्ष्म रोयों के सहारे तैरते रहते हैं । वीर्याणु से स्त्री के रजाणु कुछ बडे़ और कौड़ी के आकार के होते हैं । पुष्ट होने पर ये ही गर्भाणु हैं या गर्भांड कहलाते हैं । इनका व्यास १/१२५ इंच होता है और इनके अंदर प्राण रस रहता है । जव रज और वीर्य का संयोग होता है, तब सूक्ष्म गर्भाणु और शुक्राणु एक दूसरे को आकर्षित करके मिल जाते हैं । इस आकर्षण का कारण प्राण या रसानुभव मे मिलती जुलती एक प्रकार की चेतना बतलाई जाती है, जो इन सूक्ष्म प्राणाणुओं या प्राणकोशों में होती है । बहुत से शुक्राणु गर्भाणु की ओर झुकते हैं और उसमें घुसना चाहते हैं, पर घुसने पाता है कोई एक ही । जब कोई शुक्राणु सिर के बल उसमें घुस जाता है, तबं गर्भांड के ऊपर की एक झिल्ली छूटकर अलग हो जाती है और रक्षक कोश की तरह बन जाती है, जिससे और शेष शुक्राणु गर्भांड के अंदर नहीं घुसने पाते । इस प्रकार इन देनों प्राणाणु कोशों के संयोग से एक स्वतंत्र कोश की सृष्टी होती है, जिसे मूलकोश कहते हैं । इसके उपरांत प्राण रस का विभाग होता है । इस विभागक्रम के द्वारा धीरे धीरे बहुत से प्राणकोशों का समूह बबूलों (या शहतूत) की तरह बन जाता है, जिसे आयुर्वेदिक आचार्यों ने कलल कहा है । क्रि॰ प्र॰—रहना ।—होना । यौ॰— गर्भपात । गर्भस्त्राव । मुहा॰— गर्भ गिरना = पेट के बच्चे का पूरी बाढ़ के पहले ही निकल जाना । गर्भपात होना । गर्भ गिराना = पेट के बच्चे को औषध या आधात द्वारा पूरी बाढ़ या पूरे समय के पहले निकाल देना । गर्भपात कराना ।
२. स्त्री के पेट के अंदर का वह स्थान जिसमें बच्चा रहता है । गर्भाशय । उ॰— जाके गर्भ माहिं रिपु मोरा । ताको बध करिहौं यहि ठौरा ।—रघुराज (शब्द॰) ।
३. फलित ज्योतिष में नए मेघों की उत्पत्ति जिससे वृष्टि का आगम होता है ।
४. गर्भाधान का समय (को॰) ।
५. किसी वस्तु के भीतर का या मध्यवर्ती भाग (को॰) ।
६. छिद्र । बिल (को॰) ।
७. नदी का पेट या उसकी तलहटी (को॰) ।
८. फल (को॰) ।
९. आहार (को॰) ।
१०. सूर्य की किरशों द्वारा सुखाई हुई और आकाशस्थ वाष्प की राशि (को॰) ।
११. गृह या मंदिर का केंद्रीय या आंतरिक भाग (को॰) ।
१२. अन्न (को॰) ।
१३. अग्नि (को॰) ।
१४. नाटक की पाँच संधियों में से एक (को॰) ।
१५. कटहल का काँटेदार छिलका (को॰) ।
१६. संयोग (को॰) ।
१७. कमल का कोश । पद्यकोश (को॰) ।
गर्भ ^२पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ गर्व, प्रा॰ गब्ब, गब्भर, पु॰ हिं॰ ग्रब्ब, ग्रम्भ] गर्व । अभिमान । अकड़ । उ॰— भरहि दंड बल संड गर्भ गर्भन डर छंडहि । सगपन इक षग त्रास षलक सेवा सिर मंडहि ।—पृ॰ रा॰, ८ ।२ ।